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मनुस्मृति और जाति व्यवस्था

मनुस्मृति

मनुस्मृति क्या है ?
      मनुस्मृति, एक ऐसा धर्मग्रन्थ जो की सनातन धर्म के अनुसार सृष्टि के निर्माता परमपिता ब्रह्मा के प्रथम मानस पुत्र मनु द्वारा एक आदर्श समाज और न्यायव्यवस्था के लिए लिखी गई थी | इसमें वेदों और अन्य धार्मिक स्त्रोतों से प्रेरणा लेकर एक आदर्श समाज के लिए कुछ मार्गदर्शन और अनुशासन के निति नियमों का निर्धारण किया गया है | कर्मआधारित वर्णव्यवस्था भी इसी के द्वारा स्थापित किया गया था जिसका वर्णन ऋग्वेद में दिया गया है | भारत में सनातन सभ्यता के प्रारंभ से ही सभी राजा महाराजाओं यहाँ तक की ईश्वर के सभी अवतारों के भी द्वारा इसी ग्रन्थ को संविधान के रूप में लिया गया और उन्होंने अपना शासन इसे के आधार पर चलाया, न्यायव्यवस्था और दंडविधान का अनुसरण भी इसी के अनुसार किये जाता था |

मनुस्मृति में वर्णव्यवस्था
      किन्तु वर्तमान में मनुस्मृति पर बहुत विवाद है, इसे जातिप्रथा का मूल कहा जाता है, समाज के एक शोषित और वंचित वर्ग की दयनीय अवस्था का कारण इसी ग्रन्थ को कहा जाता है | किन्तु यदि आप इतिहास का ध्यान से तर्कपूर्ण अवलोकन करे तो यह बात पूर्णतः गलत प्रमाणित होती है | सनातन धर्म के किसी भी वेद, ग्रन्थ, पुराण आदि में जातियों का कहीं भी वर्णन नहीं है केवल उनके व्यवसाय या उनके कर्म का वर्णन है, जैसे पूजा-पाठ, शास्त्र अध्ययन-अध्यापन, यज्ञादी करने वालों को ब्राह्मण, शासन और युद्ध करने वालों को क्षत्रिय, व्यापर आदि करने वालों को वैश्य तथा समाज के अन्य छोटे कार्य अथवा बाकियों कि सेवा करने वालों को शुद्र के वर्ग में बांटा गया है | मनुस्मृति के अनुसार प्रत्येक मनुष्य जन्म से शुद्र ही होता है यहाँ शुद्र का अर्थ नीच नहीं है अपितु इसका अर्थ है अज्ञानी, निर्बोध अथवा अयोग्य | मनुष्य जन्म के कुछ वर्ष तक अज्ञानी और अयोग्य ही रहता है जब तक की उसे शिक्षा-दीक्षा एवं शास्त्रों का ज्ञान नहीं मिलता | जब वह प्रशिक्षण और अध्ययन- अध्यापन करके योग्यताएं प्राप्त कर लेता है तो उसे उसके गुण,कर्म और योग्यता आधार पर अन्य ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य वर्ग में रखा जाता है | यदि किसी कारणवश मनुष्य किसी भी योग्यता को प्राप्त कर पाने में अक्षम रहता है तो वह शुद्र वर्ग में ही रह जाता है, जिसके कारण उसे उन्ही कर्मों को करना पड़ता है जो बाकि के तीन वर्ग नहीं करते या उनके योग्य नहीं होते, जैसे कृषि, मजदूरी, लोहार, कुम्हार आदि शारीरिक व श्रमिक कार्य आदि | मनु ने वर्णव्यवस्था नहीं बनाई अपितु समाज के लोगों को उनके कर्मो के आधार पर वर्गीकृत किया, जो एक सभ्य एवं अनुशासित समाज के लिए उस परिस्थिति में आवश्यक था | यह व्यवस्था कितनी उत्तम थी इसका प्रमाण इसी बात से चलता है की कई हजार वर्षों तक इस व्यवस्था को अपनाया जाता रहा | हमें सनातन धर्म के इतिहास में कहीं भी जातिप्रथा का उल्लेख नहीं मिलेगा |

      शास्त्रानुसार श्रृष्टि रूपी विशाल पुरुष ने चार प्रकार के गुणों वाले मनुष्य उत्पन्न किया, जिसके अनुसार प्रकृति के समाज रूपी पुरुष शरीर से निम्नानुसार वर्णों का निर्माण हुआ -
1.मुख से ब्राहमण - ब्राह्मण के कर्म करने वाला तथा समाज को धर्म का ज्ञान देने वाला,
2.भुजाओं से क्षत्रिय - समाज की रक्षा तथा शासन करने वाला,
3.उदार से वैश्य - समाज का व्यापार आदि से पेट भरने वाला,
4.पैरों से शुद्र - उपरोक्त की सेवा और श्रम के कार्य करने वाला,
      वास्तव में यह वर्णन सांकेतिक है, जिसका अर्थ है इस सृष्टि अथवा समाज रूपी पुरुष को चलाने वाले चार वर्ग होते हैं,
मुख ( ब्राह्मण ) जो ईश्वर की स्तूति करता है तथा समाज को विद्या, धर्म एवं शास्त्रों का ज्ञान देता है,
बाहू ( क्षत्रिय ) जो समाज रूपी पुरुष  की रक्षा करेगा और शासन व न्याय का उत्तरदायी होता है,
उदर ( वैश्य ) जो व्यापार आदि से समाज रूपी पुरुष का भरण पोषण करता है तथा
पैर ( शुद्र ) जो इस समाज रूपी पुरुष को चलाएगा अर्थात श्रम करता है |
      यह वर्णव्यवस्था आज के प्रशासनिक वर्ग व्यवस्था के सामान ही है, जैसे किसी प्रशासनिक कार्यालय में सबसे कम शिक्षित व्यक्ति एक चपरासी ही बन पाता है जिसे चतुर्थ वर्ग कर्मचारी के वर्ग में रखा जाता है, एक योग्य रक्षक चौकीदार और एक बुद्धिमान व्यक्ति ऊँचे पदों पर बैठकर प्रशासन चलाता है, जिन्हें द्वितीय अथवा प्रथम वर्ग कर्मचारी के वर्ग में रखा जाता है | ठीक इसी प्रकार वर्णव्यवस्था भी मानव के कर्म, गुण एवं योग्यता के आधार पर मानव का वर्गीकरण करता है |

वर्णव्यवस्था में विकृति तथा जातिप्रथा का प्रचलन
      जैसा की हमने समझा की भारत में हजारों वर्षों तक वर्णव्यवस्था का प्रचलन रहा था, किन्तु वर्तमान में भारत में वर्णव्यवस्था ने परिवर्तित होकर जातिप्रथा का रूप ले लिया है, जिसका दोष मनुस्मृति को दिया जाता है | किन्तु हम अब यह समझेंगे की इसमें मनुस्मृति का कोई दोष नहीं है | हमने जाना की कर्म, गुण एवं योग्यता के आधार पर वर्ण का निर्धारण होता था यह कोई बंधन नहीं होता था किन्तु समाज में एक अनुशासन और स्थिरता लाता था |
      यह कोई भी समझ सकता है कि कोई धर्म शास्त्रों का ज्ञानी ही धार्मिक कार्य और शास्त्रों के अध्ययन-अध्यापन, यज्ञ-हवन आदि करवा सकता है, एक अस्त्र-शस्त्र तथा युद्ध विद्या में कुशल व्यक्ति ही रक्षा व शासन का कार्य कर सकता है और एक कुशल व्यापारी ही व्यापर कर सकता है तथा एक कुशल श्रमिक या कारीगर ही श्रमक्रिया अथवा कारीगरीका कम कर सकता है, यदि इनके गुण व योग्यता को न देखकर इनके कार्य आपस में बदल दे तो कोई भी वर्ग दुसरे वर्ग का कार्य नहीं कर सकेगा,| अर्थात् जैसे वर्तमान में एक शिक्षित को ही शिक्षण का कार्य मिलता है, योग्य हिष्ट पुष्ट और शारीरिक रूप से सक्षम को सैनिक का कार्य मिलता है तथा प्रशासन के ज्ञाता को ही प्रशासन का कार्य मिलता है उसी तरह वर्णव्यवस्था भी वर्णों का निर्धारण करता था |
      किन्तु क्या कारण है की यह वर्णव्यवस्था जातिप्रथा में रुपान्तरित हो गई ?  इसे समझने के लिए सर्वप्रथम हमें तात्कालिक परिस्थिति और विचारधाराओं का आकलन करना पड़ेगा |
    हम जानते हैं की वर्णव्यवस्था में जो व्यक्ति जिस योग्यता को रखता है उसके अनुसार ही उसका कर्म निर्धारित होता था जिससे उसे एक विशेष वर्ण में वर्गीकृत किया जाता था | समयांतराल में जब हर वर्ण के लोग अपने आने वाली पीढ़ी को भी अपने वर्ण में रखने के लिए उसे वही योग्यताएं देता था जो उसमें हैं तो यह व्यवस्था पारंपरिक होती गई | यही कारण था की वर्षों से एक ही वर्ण में रहने के कारण उन्होंने स्वयं को एक वर्ण विशेष से सदा के लिए जोड़ दिया जो की शास्त्र सम्मत नहीं था | इसके कारण जो व्यक्ति निर्धारित वर्ण की योग्यता नहीं रखता था उसे भी केवल जन्म के आधार पर वह वर्ग मिल जाता था जो इसके पूर्वज का था | जैसे पूजा-पाठ आदि ब्राह्मण के कर्म करने वाले की संतान भी ब्राह्मण कहलाने लगे, क्षत्रिय के वंशज क्षत्रिय, वैश्य के वंशज वैश्य तथा शुद्र के शुद्र ही कहलाने लगे | यह पूर्णतः शास्त्र विरुद्ध था किन्तु सामाजिक परिस्थिति में इसे ही अपनाया जाने लगा | शास्त्रों का अनुसरण, वेद आदि का सही अध्ययन-अध्यापन न होने के कारण यह व्यवस्था निरंतर चलती रही, चुकी समाज में ब्राह्मण को उसके कर्म और शास्त्रों में ईश्वर का मुख बताये जाने के कारण ऊँचा स्थान मिलता था इसलिए कुछ स्वार्थी तथा पाखंडी पण्डे-पुरोहितों ने भी इस विकृत वर्णव्यवस्था को बढ़ावा दिया ताकि समाज में उनका स्थान सदैव ऊँचा बना रहे | अन्य वर्णों ने भी यही किया और इस शास्त्र विरुद्ध वर्णव्यवस्था के प्रचलन को चलने दिया | ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य वर्ण पर तो इस व्यवस्था का अधिक नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ा परन्तु जो शुद्र वर्ण था अर्थात् जो श्रमिक अथवा सेवा का कार्य करता था एक ही वर्ण में रह गया, जिससे योग्यता तथा ज्ञान होते हुए भी उनकी आगे की पीढ़ी शुद्र ही कहलाई | लम्बे समय तक एक ही वर्ण में रहने तथा उसी वर्ण के कार्य करने के कारण जातियों का निर्माण हुआ, जैसे ब्राहमण कर्म करने वाला ब्राह्मण की कई जातियों में विभक्त हो गए, क्षत्रिय वर्ण कई क्षत्रिय जातियों में विभक्त हो गए, वैश्य वर्ण कई वैश्य जातियों में विभक्त हो गए तथा शुद्र वर्ण कई शुद्र (श्रमिक ) जातियों जैसे लौह का कार्य करने वाला लोहार, कपड़े का कार्य करने वाला जुलाहा, चिता जलाने वाला चांडाल, मिट्टी के कर करने वाला कुम्हार आदि में विभक्त गए, यहीं से जातिप्रथा का प्रारंभ हुआ | 

जातिप्रथा में अस्पृश्यता
    अभी तक आप समझ चुके होंगे की जाति व्यवस्था शास्त्र विरुद्ध थी, किन्तु तात्कालिक परिस्थितियों, विचारधाराओं तथा कुछ स्वार्थी व पाखंडियों के स्वार्थ के कारण निरंतर चलती रही, जिसमें न शास्त्रों का दोष है न मनु और नहीं सनातन धर्म का | इस विकृत जातिप्रथा के कारण वह वर्ग जो समाज के उन कार्यों को करता था जो बाकि वर्ण करते थे, निरंतर उन्हीं कार्यों को करना पड़ा | फलस्वरूप उनकी आर्थिक व् सामाजिक स्थिति निम्न होने लगी, समाज में उनके कार्यों के कारण उन्हें हिन भावना से देखा जाने लगा, उनकी उपेक्षा और तिरस्कार होने लगा | इस वर्ग का एक बहुत बड़ा वर्ग ऐसा भी था जो ऐसे कर्म करता था जो दुसरे वर्ग के लोग करना नहीं चाहते थे , जैसे चमड़े का कार्य, चांडाल का कार्य, मल आदि की सफाई का कार्य विवश होकर अपनी दरिद्रता के कारण शूद्रों को यह कार्य भी करना पड़ता था जो धीरे धीरे यह एक प्रचलन सा बन गया | समाज के दुसरे वर्ग शूद्रों से सभी हिन और छोटे कार्य करवाने लगे | चुकी शुद्र वर्ग का यह वाढ निरंतर इस तरह की अस्वच्छ कार्यों को करता था फलस्वरूप दुसरे वर्गों में उनके प्रति अस्पृश्यता का भाव आने लगा | ब्राह्मण आदि वर्ग अपने शुद्ध होने के मान में इन्हें छूना अथवा इनके समीप जाना, इनके साथ सार्वजानिक कार्यों में भाग लेने में असहज होने लगे यही भाव आगे चल कर छुआ-छुट और अस्पृश्यता का कारण बना, जो की न तो शास्त्र सम्मत था और न ही सनातन धर्म के मौलिक विचारधारा के अनुसार | यह अस्पृश्यता का भाव भारत में समाज के सभी वर्गों में बड़ी ही शीघ्रता से फ़ैल गया जिसके कारण पुरे देश में इन शूद्रों को हिन भाव से देखना तथा इनके प्रति एक प्रकार की घृणा का भाव उत्पन्न करने लगा | स्वयं को ऊँचे और शूद्रों को मीमं जाति का मानकर ऊँचे वर्गों ने शूद्रों पर कई वर्षों तक अत्याचार भी किये | अपने अशुद्ध और छोटे कार्यों के लिए बलपूर्वक भी शूद्रों को कार्य कराया, यही कारण था की अपने प्रति इस द्वेषपूर्ण और अत्याचारी व्यवहार से ग्रसित शुद्र वर्ग में इन अन्य वर्गों के प्रति द्वेष बढ़ गया जो बाद में इनके विरूद्ध अलग अलग प्रकार से फूटा |

    महात्मा गाँधी, वीर सावरकर, मदनमोहन जैसे कई विद्वानों ने इस अस्पृश्यता के विकृत भाव को समाज से मिटाने का बहुत प्रयास किया और हजारों वर्षों के अन्तराल में विकृत हुई वर्णव्यवस्था से उपजी जातिप्रथा और फिर उससे निकली अस्पृश्यता का पुरे देश में विरोध हुआ | भारत की स्वतंत्रता के साथ ही संविधान में भी अस्पृश्यता के लिए कई विधान बने | किन्तु क्या हम यह कह सकते हैं की संविधान ने अस्पृश्यता को मिटा दिया या क्या संविधान इसे अस्पृश्यता को मिटाने में सक्षम है ? नहीं, क्योंकि यह कोई प्रशासनिक प्रथा नहीं अपितु एक सामाजिक कुप्रथा है जिसे मिटाने के लिए सामाजिक चेतना और शास्त्रों का सही ज्ञान देना अतिआवश्यक है | चुकिं अस्पृश्यता और जातिप्रथा का प्रचलन लोगों में इस भ्रम के कारण है की यह हमारे शास्त्रों का अंग है अतः इसका निवारण भी शास्त्रों का समाज में अध्ययन-अध्यापन से ही होगा |

दलित (शुद्र) आन्दोलन
    भारत में जब मुस्लिम आक्रान्ताओं का आक्रमण और फिर अंग्रेजों का शासन रहा तब उन्होंने अपने अपने विचारधारा और धर्म के अनुसार भारत में भी अपने धर्म को आरोपित करने का प्रयास किया | मुस्लिम शासकों ने तलवार का भय दिखाकर हजारों हिन्दुओं को मुस्लिम बनाया तथा जो नहीं माने उनकी निर्मम हत्या भी की यही कार्य अंग्रेजों में भी किया पहले तो उन्होंने भी बंदूकों का भय दिखाकर धर्मपरिवर्तन करने का प्रयास किया किन्तु बाद में उन्होंने दुसरे दाव अपनाये | भारतियों के प्रति उनकी द्वेष और हिन भावना के कारण उन्होंने विश्व भर में भारत की छवि धूमिल करने का पूरा प्रयास किया | हिन्दू शास्त्रों और मान्यताओं को काल्पनिक तथा मूर्खतापूर्ण बताकर हिन्दू धर्म का अपमान करने का बहुत प्रयास किया | भारत में उन्होंने राजाओं, सामाजिक वर्गों और अन्य राज्यों में फुट डालो राज करो की निति अपनाकर देश पर अपना शासन स्थापित किया | इस निति के तहत उन्होंने एक राजा को दुसरे राजा से, एक वर्ग को दुसरे वर्ग से लड़वाया | इसी निति के तहत अंग्रेजों ने शुद्र वर्ग को दलित शब्द से बदल कर उनका राजनैतिक लाभ भी लिया | राजाओं से युद्ध करने के लिए उन्हें सैनिकों की आवश्यता थी जिसके लिए उन्होंने भारत के दरिद्र और दलित (शुद्र) वर्ग को अपनी सेना में बड़ी मात्र में ले लिया | अंग्रेजों ने वर्गों के आपसी मतभेदों और द्वेषों का निजी लाभ लिया जिसका एक उदाहरण भीमा-कोरेगाव का युद्ध था जिसमें अंग्रेजों के ओर से युद्ध में महार जाति के दलितों (शूद्रों) ने मराठा पेशवाओं जो की ब्राहमण-क्षत्रिय थे को हराया था, इस युद्ध को आज भी शूद्रों की ब्राह्मणों पर विजय के रूप में दलित मानते हैं, जबकि यह युद्ध अंग्रेजों तथा भारतीय राजाओं के मध्य था | एक तरह से देखा जाये तो दलित (शुद्र) राजनीती अंग्रेजों के समय से ही शुरू हो गई थी | अंग्रेजों ने अपने लेखों और प्रचार सामग्रियों में भारत की शिक्षा-व्यवस्था, न्यायव्यवस्था तथा जातिप्रथा का बहुत कुप्रचार किया | बिना मूल ग्रंथों का अध्ययन किया उन्होंने तात्कालिक भारतीय व्यवस्था और परंपरा को ही सनातन धर्म की मूल व्यवस्था और परंपरा मान लिया और उसका कुप्रचार भी किया | उन्होंने अपनी पुस्तकों और शोधों में इसी का कुप्रचार किया | जब डॉ.भीमराव अम्बेडकर जो की एक दलित थे और भारत की उसी शास्त्र विरुद्ध जातिप्रथा से उपेक्षित और तिरस्कृत किये गए थे अपनी शिक्षा के लिए विदेशों में गए तो उन्होंने अंग्रेजों स्वर कुप्रचारित पुस्तकों और शोधों का ही अध्ययन किया | अंग्रेजों ने सनातन ग्रंथों, वेदों तथा मनुस्मृति आदि का गलत अनुवाद कर उसे कुप्रचारित किया था, डॉ.अम्बेडकर ने भी उन्हीं तथों और तर्कों से अपनी अवधारणा बनाई जिसके अनुसार भारत में जातिप्रथा का कारण सनातन धर्म के मूल वेद व मनुस्मृति आदि हैं | इसी कारण उन्होंने अपने भारत आकर जो दलितों के न्याय के लिए आन्दोलन चलाया वो ब्राह्मणों और तथाकथित उच्च वर्णों के विरुद्ध था | डॉ.अम्बेडकर ने इस जातिप्रथा से तंग आकर अपने अंतिम समय में अपने कई समर्थकों के साथ अपना धर्म बदल कर बौद्ध धर्म अपना लिया जो है तो वास्तव में हिन्दू धर्म का ही अंग किन्तु समयांतराल में एक अलग विचारधारा के कारण उसे एक अलग धर्म की तरह प्रस्तुत किया जाने लगा | डॉ.अम्बेडकर शायद ऐसे प्रथम व्यक्ति थे जो दलित वर्ग के थे तथा उच्च शिक्षा प्राप्त कर बड़े पदों पर पहुंचे थे, इसलिए वे दलित वर्ग में बहुत ही विख्यात थे, दलित वर्ग का उनसे बहुत अधिक भावनात्मक जुड़ाव था | डॉ.अम्बेडकर के बाद भारत में कई ऐसी राजनैतिक दल बने जिन्होंने दलितों की बात की, उनके न्याय और सम्मान के लिए आन्दोलन किया | जब डॉ.अम्बेडकर को संविधान निर्माण सदस्य का अध्यक्ष बनाया गया तब डॉ. अम्बेडकर ने दलितों के लिए आवाज उठाई, समाज के इस पिछड़े और शोषित वर्ग के लिए सामान अधिकार के लिए आरक्षण की निति भी लाई | डॉ.अम्बेडकर ने जो आन्दोलन चलाया था वह दलितों (शूद्रों) के सम्मान और अधिकार के लिए किया था, किन्तु बाद में यह आन्दोलन राजनैतिक महत्वाकांक्षा की पूर्ति का साधन बन गया, दलित वर्ग एक बड़ा वोट बैंक बन गया जिसका कई नेताओं ने लाभ उठाया, दलित अस्मिता, सम्मान और अधिकार की बात करके उनके एक किया और उनके वोट से सत्ता में आ गए | उन्होंने सत्ता के लिए दलित वर्ग का उपयोग तो लिया किन्तु उनकी दयनीय स्थिति को सुधरने के लिए कोई महत्वपूर्ण  नहीं किये | यही कारण है स्वतंत्रता के 70 वर्ष के बाद कई दलित उन्मूलन नीतियों, आरक्षण के बाद भी दलितों की स्थिति दयनीय है | आज भी दलितों के नाम दलित चेतना, दलित उन्मूलन के नाम से कई आन्दोलन चलाये जा रहे हैं | देखा जाये तो संविधान निर्माण के बाद दलितों का और अधिक शोषण हुआ , उन्हें निम्न जाति या समाज का दर्जा संविधानिक रूप से मान लिया गया, जिसके कारण उनका और अधिक राजनैतिक और सामाजिक शोषण होने लगा | मनुस्मृति में किसी भी वर्ग, समाज या लिंग को निम्न या नीच नहीं माना, जबकि संविधान ने एक वर्ग को निम्न मान लिया, यदि उनके शोषण भी हुआ तो उनको सशक्त बनाने का प्रयास किया जाना चाहिए था न उनको यह बताकर की अमुख जाति या समाज छोटा, पिछड़ा या शोषित है, इसके कारण उनके स्वतः ही आत्मनिर्भरता की कमी आ जाती है फलस्वरूप वो किसी अन्य पर निर्भर हो जाते हैं जैसे किसी राजनैतिक दल, अप्रशासनिक संगठन NGO या प्रशासन | इसी का लाभ उठाकर उनका राजनैतिक शोषण होने लगता है जैसा की वर्तमान में हो रहा है | सभी उनके अधिकार व सम्मान की बात तो कर रहे हैं किन्तु अधिकार व सम्मान कोई नहीं दे रहा है |

दलित आन्दोलन में राजनैतिक दलों और बुद्धिजीवियों का प्रभाव
    दलित वर्ग वर्षों से उपेक्षित और शोषित होता आ रहा है, किन्तु स्वतंत्रता के बाद भी अनेक आन्दोलन व नीतियों के पश्चात भी उनकी स्थिति दयनीय ही है, इसका कारण भारत की राजनैतिक दलों का स्वार्थ तथा उनकी निष्क्रियता है | राजनैतिक दलों ने दलितों को केवल एक वोटबैंक के रूप में रखा और उनका विकास कभी नहीं होने दिया वो ये बात जानते थे की यदि यह वर्ग समाज के अन्य वर्गों की तरह सक्षम बन गया तो इन पर शासन करना संभव नहीं रहेगा, क्यों की एक शिक्षित व जागरूक समाज पर शासन करना सरल नहीं होता | वो प्रश्न करते हैं, वो अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाते हैं, वो भी समाज के अन्य वर्गों की तरह अलग अलग सुविधाओं व नीतियों की मांग करते हैं | यही कारण है की बहुत सारी नीतियों के बाद भी इनका उन्मूलन नहीं हो सका | जहाँ डॉ.अम्बेडकर ने दलितों को जागरूक कर उन्हें सम्मान व अधिकार दिलाने का प्रयास किया, वही आज के तथाकथित दलित नेता व राजनैतिक दल दलितों को केवल एक वोटबैंक की तरह एक विशेष विचारधारा में बांधे रखकर अपनी राजनैतिक स्वार्थ की पूर्ति करते रहना चाहते हैं | यदि वास्तव में उन्होंने दलितों के लिए कुछ किया होता तो आज दलितों की स्थिति सुधर चुकी होती | डॉ.अम्बेडकर दलितों में बहुत ही प्रिय थे, वक प्रकार से डॉ.अबेडकर दलितों के प्रथम नेता थे, इसलिए डॉ.अम्बेडकर के बाद उदय होने वाले दलित नेताओं और दलों ने डॉ.अम्बेडकर को अपने चेहरे के रूप में प्रस्तुत किया | राजनैतिक दलों ने डॉ.अम्बेडकर के नाम, उनके व्यक्तित्व औत उनकी ख्याति का पूरा उपयोग किया यद्यपि इसके पीछे उनका उद्देश्य दलितों को वोटबैंक के रूप में उपयोग कर केवल सत्ता पाना था | समय के साथ साथ राजनेताओं को दलितों की संख्या तथा उनके वोटबैंक के महत्व का समझ में आ गया जिसके कारण राजनैतिक दलों में दलित वोट बैंक के लिए खीच-तान होने लगी | राजनैतिक दलों के बीच दलित एक प्रकार से पीस रहे थे, हर कोई उनकी आवाज बनना चाहता था किन्तु उनका उद्धार कोई नहीं कर रहा था | विवश होकर उन्हें किसी को तो चुनना ही पड़ता था जिससे कई नेता निकले | 
      दलित नेताओं के साथ साथ वामपंथी नेताओं ने भी दलितों को अपने राजनीती की सीढी की तरह उपयोग बहुत उपयोग किया, अभी तो यह चरम पर है | वामपंथी जिन्होंने पहले जंगलों में बसे आदिवासियों को अपनी विचारधारा से प्रभावित कर नक्सल आन्दोलन खड़ा किया और उन्हें सरकार के हथियार की तरह उपयोग किया, अब आदिवासियों का वामपंथियों से मोहभंग होने के कारण वामपंथी अब दलितों को अकर्षित करने में लगे हुए हैं | भारत में अभी भी सबसे बड़ा वर्ग हिन्दू धर्म का है जिसके कारण स्वाभाविक है की वो हिन्दू धर्म के शास्त्रों व मान्यताओं का ही अनुसरण करते हैं, अभी भी दलितों का बहुत बड़ा वर्ग हिन्दू ही है किन्तु राजनैतिक महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए कुछ राजनैतिक दल इन दलितों को हिन्दू धर्म से अलग बताने का प्रयास कर रहे हैं, अपने झूठे प्रचार साधनों के माध्यम से दलितों में निरंतर हिन्दू धर्म और हिन्दुओं के विरुद्ध द्वेष उत्पन्न करके उनका राजनैतिक लाभ लेने का प्रयास करते रहते हैं | भारत में इस समय वामपंथियों ने दलित राजनीती को अपन सबसे बड़ा हथियार बनाया हुआ है, देश भर में दलित आन्दोलन खड़ा कर दलितों को ब्राह्मणवाद और मनुवाद के नाम पर आक्रोशित किया जा रहा है | स्वाभाविक है यदि किसी जाति, धर्म या पंथ को किसी अन्य जाति, धर्म या पंथ के विरुद्ध आक्रोशित किया जाए तो वह समाज एक जुट हो जाता है, फिर इसका राजनैतिक लाभ उठाया जाता है | किन्तु वर्तमान समय में यह विचारधारा अत्यंत ही भयानक व विकराल रूप ले चुकी है, दलितों के मन में ब्राहमण व अन्य वर्गों के विरुद्ध इतना द्वेष भरा जा रहा है की यदि उनका कभी आवेश बहार आया तो भयंकर नरसंहार भी संभव है जो कभी कभी आन्दोलन के रूप में भी दीखता है जिसमें किसी न किसी निर्दोष के प्राण चले जाते हैं | यह कहाँ तर्कसांगत हो सकता है हजरों वर्षों के विकृत परंपरा के प्रति जो द्वेष है वो किसी निर्दोष पर निकला जाये | परन्तु इस समय देश में यही राजनीती चल रही है | दलित वर्ग को उग्र कर उन्हें दुसरे वर्ग के विरुद्ध आक्रोशित किया जा रहा है | स्वतंत्रता के 70 वर्ष बाद भी यदि दलितों को अधिकार व सम्मान के लिए आन्दोलन करना पड़ रहा है तो यह भारत के भविष्य के लिए एक अत्यंत ही बुरी बात है | आशचर्य की बात तो यह है की लगभग 60 वर्ष देश पर शासन करने वाले राजनैतिक दल दलितों की दुर्गति का कारण अपनी 60 वर्ष की गलत नीतियों और दलितों के प्रति संवेदनहीनता को न मानकर मात्र तीन वर्ष पुरानी सरकार को मानते हैं जिसने दलितों के लिए कही योजनाये निकाली हैं, एक दलित को देश के सर्वोच्च राष्ट्रपति पद पर असीन किया, जिस दल की मुख्य विचारधारा ही हिन्दू धर्म को फिर से सशक्त बनाना है, दलितों और शोषितों को उठाकर साम्मान दिलाना है | 

निष्कर्ष एवं समस्या का उपाय
    अंततः हम यह निष्कर्ष निकल सकते हैं की भारत में वर्णव्यवस्था तथा जातिप्रथा एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था है जो समाज के अनुशासन तथा नैतिकता के लिए अपनाई गई थी, किन्तु समाज की अज्ञानता अथवा वैचारिक परिवर्तन के कारण यह विकृत हो गई जिसके कारण आज समाज में इतना असंतुलन हो गया है | यह कहना पूर्णतः गलत है की एकवक भारत में ही ऐसा हुआ है, विश्व के कई देशों में समाज का वर्गीकरण तथा अस्पृश्यता का प्रभाव रहा है अतः इसे हिन्दू सनातन धर्म शास्त्रों को दोष देना पूर्णतः गलत है | वर्गविहीन समाज कभी भी स्थापित नहीं हो सकता, क्योंकि समाज के अलग अलग कर्मों तथा विचारधारा के आधार पर समाज का वर्गीकरण स्वतः हो जाता है, अतः सामाजिक विकृति को मिटाने के दो ही मार्ग हैं -
1.प्राचीन वर्णव्यवस्था को पूर्ण रूप से व शास्त्र सम्मत तरीके से लागु किया जाये अथवा,
2.जनजागरूकता के माध्यम से इस कुरीति को मिटा कर पारस्परिक सद्भाव लाया जाये |

    दोनो ही स्थिति में समाज को ही इस अव्यवस्था को मिटाना होगा, अन्यथा इस सदैव राजनीतिकरण होता रहेगा तथा इन शोषित वर्गों का कभी उद्धार नहीं होगा | आशा है की भारतीय समाज स्वतः ही इस समस्या का निवारण करेगा अन्यथा असामाजिक तत्व इस अव्यवस्था को हथियार बनाकर समाज को तोड़ने का प्रयास करते रहेंगे |

|| धन्यवाद ||

वन्दे मातरम्

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# लालआतंक  से जूझ रहा भारत कुछ साल पहले तक दुनिया के एक मात्र हिन्दू राष्ट्र रहा नेपाल अब कम्युनिस्टों के हाथ आ चूका है | अपने सालों से चल रहे एजेंडे के साथ इन्होने धीरे धीरे नेपाल की सभ्यता को ख़त्म किया, लोगों को हिन्दू धर्म से दूर किया,चुकी नेपाल एक छोटा देश है इसलिए यह काम जल्दी हो गया | अभी भारत में भी यह काम भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी कर रही है पर संघ भाजपा जैसी पार्टियों की वजह से इनका ये काम आसान नहीं है | उद्देश्य ये है की देश के तंत्र में ओने लोगों को वायरस की तरह घुसा दो, जो धीरे धीरे अपने क्षेत्रों को वामपंथी विचारधारा से प्रभावित करते हैं, इनकी विचारधारा किसान, मजदुर, आदिवासी, दलित, मुस्लिम और नारीवाद जैसे क्रन्तिकारी विचारधारा लगती है | पर असल से इनका उद्देश्य भारत के तंत्र गिराना है | वामपंथियों ने तीन रास्ते अपनाये हैं -   1. राजनैतिक - चुनाव लड़ना और रणनैतिक लड़ाई लड़ना, 2. शहरी नक्सल - इस रणनीति में इनके लोग देश के सभी विभाग में घुसकर वामपंथी विचारधारा को फैलाना और लोगों को अपनी और लाना है, वकील, जज, सामाजिक कार्यकर्ता, प्रोफेसर, इतिहासकार,

कम्युनिस्ट ताकतें और भारत को तोड़ने का षड़यंत्र

कम्युनिस्ट ताकतें और भारत को तोड़ने का षड़यंत्र यदि आपसे कोई पूछे की देश के लिए सबसे बड़ा खतरा क्या है तो आप क्या कहेंगे ? शायद आप कहेंगे पाकिस्तान, चीन, आतंकवाद या कुछ और पर मेरे अनुसार से यह सही नहीं है | या सब वो ताकते हैं जो हम पर बाहर से हमला करती हैं इसलिए हम इनसे लड़ सकते हैं | लेकिन उनका क्या जो हमें अन्दर से मार रहे हैं, हमें अन्दर से कमजोर कर रहे हैं, जैसे दीमक घर को खोखला करता है, कैंसर शारीर को अन्दर से खाता है और धीरे धीरे मृत्यु तक पंहुचाता है | इसी तरह भारत का भी एक आन्तरिक शत्रु है जो भारत को अन्दर ही अन्दरकमजोर और खोखला कर रहा है | इसकी सबसे बड़ी ताकत है की यह अदृश्य और अप्रत्यक्ष है इसलिए इसके नुकसान हमें सीधे नहीं दीखते समझ आते और यह ताकत है भारत में वामपंथी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट | वैसे तो पहले वामपंथ एक वर्ग संघर्ष आन्दोलन था पर बाद में यह सत्ता हथियाने वाली विचारधारा बन गई जो आंदोलनों का उपयोग केवल सत्ता प्राप्त करने के लिए करती है जिसके लिए यह किसी भी सीमा तक जा सकते हैं भले ही देश में गृह युद्ध क्यों न हो जाये, भीषण नरसंहार क्यों न हो जाये | भारत में तो वै